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Monday, 23 January 2017

ये बेरोजगार लफंगे हैं

दुबली देह, फटी बिवाई,
जिस्म जिनके अधनंगे हैं.
हाकिम का फरमान है कि,
ये बेरोजगार लफंगे हैं.

महलों के महाराज सुनो!
क्यों तुम्हें दिखे भीखमंगे हैं.
वो क्या जाने पीर पराई,
सियासत में जो रंगें हैं.

माना कि तुम मदहोशी में हो,
पर हम भी युवा चेहरे हैं.
तुफानों का रुख बदलदें,
सागर की वो लहरे हैं.

अब तो वक्त तुम्हारा है,
हम लाचारी से सह लेंगे.
पर समय तुला तो वर्तमान को,
बेरोजगारी से तोलेंगे.

पर मत भूलो सत्ता जाते,
वक्त नहीं लगा करता.
युवाओं की ललकारों पर,
पहरा नहीं लगा करता.

हुंकार भरी आवाज तुम्हारी,
लगी थी रानी वाली है.
क्यों तुम्हें नहीं लगा कि,
ये मां बहिन की गाली है.

भर जाते सब जख्म़ हमारे,
तुम थोड़ा सा सहला देते.
तन्हाई कि उस महफिल में,
वादों से गर नहला देते.

हम हैं आदी फरेब़ खाने के,
तुम्हारा भी खा लेते.
गर थोड़ा सा सोचा होता,
गीत तुम्हारे गा लेते.

अरे हम तो समझा करते थे कि,
ये तो हिम्मत वाले हैं.
बेरोजगारों के भाग्य विधाता,
व उनके रखवाले हैं.

राज, राजे में फर्क न समझा,
ये कैसी खुमारी है.
तुम क्या जानो मर्ज हमारा,
ये बहुत बड़ी बिमारी है.

आशाएं सब टूट गई हैं,
नहीं रहा कुछ बाकी है,
जब से तुमने कीमत जो,
"लफंगे" हमारी आंकी हैं ।

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